मनुष्य और सर्प कविता का सारांश ~ श्री रामधारी सिंह दिनकर (Ch.6 ~ WBBSE Madhyamik Questions and Answers )

मनुष्य और सर्प (कविता)- श्री रामधारी सिंह दिनकर 

व्याख्या और संदेश 


 

मनुष्य और सर्प  नामक कविता का मूल भाव अपने शब्दों में लिखिए। 


उत्तर: महाभारत नामक महाकाव्य के अनुसार कुरुक्षेत्र में कौरव और पांडव - दोनों के मध्य महासंग्राम हुआ। धृतराष्ट्र के दुर्योधन आदि 100 पुत्र तथा उनके सहायक मित्र राज्यों की 18 अक्षौहिणी (लगभग 2 लाख 20 हजार सभी अंग) तथा पांडवों के पक्ष में 11 अक्षौहिणी सेना थी। उस युग के सभी महान योद्धा तथा भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य एवं कर्ण जैसी विभूतियां कौरवों के पक्ष में (युद्ध कर रहे ) थे‌। पांडवों का एकमात्र आधार भगवान श्री कृष्णा थे। युद्ध के भीषण पराकाष्ठा के अवसर पर जब एक दूसरे के विनाश के लिए कर्ण और अर्जुन भीषण वाण वर्षा कर रहे थे तभी कर्ण द्वारा बाण के लिए तरकश में हाथ डालने पर उन्हें किसी सर्प की फुफकार  सुनाई दी। इसके साथ मानव जैसी आवाज में नागों के राजा ने प्रस्ताव किया कि वह (कर्ण) उन्हें (अश्वसेन) अपने धनुष से अर्जुन तक किसी प्रकार पहुंचा दे। शेष कार्य व स्वयं कर लेगा। कवि के शब्दों में - 

"तरकश में से फुंकार उठा,

 कोई प्रचंड विषधर भुजंग"


अश्वसेन ने कहा कि वह सांपों का राजा तथा अर्जुन का जन्मजात शत्रु है और कर्ण का हितकारी मित्र है वह अपने शत्रु के विनाश में कर्ण का सहयोग चाहता है अगर कर्ण उसे सहयोग देगा तो अपने मन के संपूर्ण विष को अर्जुन के शरीर में उड़ेल देगा इस प्रकार कर्ण के शत्रु अर्जुन का अंत हो जाएगा। 


इस पर कर्ण ने उत्तर दिया कि मानव की विजय या पराजय उसकी अपनी आत्म - शक्ति पर निर्भर करती है एक सच्चा योद्धा किसी भी दशा में शत्रु के विनाश के लिए शत्रु के शत्रु की सहायता नहीं लेता। कर्ण ने कहा वह और अर्जुन दोनों ही मनुष्य हैं इस दशा में वह मानव शत्रु अर्जुन के विनाश में किसी भी दशा में किसी सर्प की सहायता नहीं ले सकता। अगर उसने ऐसा किया तो उसका सारा आदर्श और नैतिकता खत्म हो जाएगी और इतिहास और भविष्य की संतति उसे कभी क्षमा नहीं करेंगे। 

"तेरी सहायता से जय तो, मैं अनायास पा जाऊंगा" "आने वाली मानवता को, लेकिन क्या मुख दिखलाऊंगा" ।


ऐसा करने पर कर्ण को निश्चय ही कठोर आलोचना और बदनामी भी साहनी होगी‌। कर्ण के विचार में लोग कहेंगे कि नीच कर्ण ने अपने मानव शत्रु के विनाश के लिए सर्प की सहायता ली।


 शत्रु और शत्रुता के संबंध में करने के विचार: 

अपने सहयोगी के रूप में उपस्थित अश्वसेन के प्रस्ताव को ठुकराते हुए, कर्ण ने कहा कि अर्जुन और वह दोनों ही मनुष्य हैं उनकी यह शत्रुता केवल इसी जीवन तक सीमित है। कर्ण के विचार में बुद्धिमान मनुष्य शत्रुता को अपने जीवन तक ही सीमित रखते हैं, वह उसे आगे नहीं बढ़ते । उनके विचार में अर्जुन से उसका संबंध इस रूप में केवल इस जीवन तक है। दोनों की मृत्यु के साथ ही यह शत्रुता समाप्त हो जाएगी। जो मूर्ख है वही इस शत्रुता को अनावश्यक रूप से पीढ़ी तक बढ़ाते हैं।

कवि के शब्दों में- 

" संघर्ष, सनातन नहीं,शत्रुता, इस जीवन भर ही तो है"।


 कर्ण ने कहा कि इस दशा में वह (कर्ण) उस सर्प की बातों में आकर अगले जन्म को क्यों खराब करें। अगर वह अपने शत्रु अर्जुन के वध के लिए सर्प से सहयोग लेता है तो वह निचता ही होगी। इसलिए कर्ण अपनी क्षणिक स्वार्थ के लिए किसी से कोई सहयोग नहीं लेगा।

 

कवि के विचार में वर्तमान युग में सर्प मानव वेश में भी छिपे हुए रूप में दिखाई देते हैं। ऐसे छिपकर वार करके किसी भी साधन से अपने शत्रु के विनाश का प्रयत्न करते हैं। मानव सामने के शत्रु से तो सावधान रहकर उसका सामना कर सकता है, किंतु छिपा हुआ शत्रु उसे पर कभी और किसी भी रूप में वार करके हानि पहुंचा सकता है। कर्ण के विचार में ये छिपे शत्रु मानवता की अस्तित्व को खतरे में डाल देते हैं‌। अंत में कर्ण ने अपने शत्रु अर्जुन के विनाश के लिए उसके शत्रु अश्वसेन की सहायता अस्वीकार करके यह दिखा दिया कि नीच और दुर्बल चरित्र के व्यक्ति अनैतिक और अनुचित साधनों से शत्रु के विनाश से नहीं झिझकते जबकि चरित्रवान व्यक्ति केवल सामने और प्रत्यक्ष युद्ध में ही विश्वास करते हैं। इतना कहकर कारण ने अश्वसेन नामक सर्प को भागने को कहा। 



सांर्पों की सहायता लेना मानवता को नष्ट करना है‌। कर्ण की इस तर्क का भाव स्पष्ट करें‌।

 उत्तर: कर्ण सांप को मानवता का शत्रु कहता है सांप को संबोधित करते हुए कर्ण कहता है कि सांपों की अनेक संताने मनुष्य के रूप में पृथ्वी पर विद्यमान है। भाव यह कि जो लोग छल कपट से दूसरों को हानि पहुंचाते हैं ऐसे लोग गुप्त रूप से सांप ही होते हैं। वे केवल वन, प्रदेश अथवा जंगलों में ही नहीं रहते नगरों, शहरों तथा गांव में भी निवास करते हैं। ऐसे मनुष्य रूपी सांप ना तो स्वयं मानव की तरह रहते हैं और ना ही शेष मानवता को रहने देते हैं। इससे मनुष्य मनुष्य का शत्रु हो जाता है। और मानवता की राह कठिन हो जाती है। कर्ण का यह तथ्य मानवता का सार्थक प्रतीत होता है।



मनुष्य और सर्प शीर्षक कविता के संदेश और उद्देश्य पर प्रकाश डालिए।

 उत्तर:  संदेश - मनुष्य और सर्प शीर्षक कविता में कवि दिनकर जी ने उस समय का संक्षिप्त वर्णन किया है जब महाभारत युद्ध में कर्ण कौरवौं की ओर से युद्ध कर रहा था। रणभूमि में जिस समय कर्ण - अर्जुन आमने-सामने एक दूसरे पर वाणों की बौछार कर रहे थे। उसी समय अर्जुन के पूर्व शत्रु  अश्वसेन नामक सर्प ने अर्जुन का वध करने में कर्ण से उसकी सहायता करने का प्रस्ताव किया। किंतु यशस्वी एवं स्वाभिमानी कर्ण ने उसके इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया क्योंकि वह अपने आदर्श, चरित्र एवं स्वाभिमान पर किसी भी प्रकार का कलंक नहीं लगने देना चाहता था। इस विषय पर उसकी सोच यह थी कि युद्ध में भले ही सर्प उसे विजय दिला, दे किंतु 'सर्प' मानवता का दुश्मन है, अतः यदि उसने अर्जुन पर विजय प्राप्त करके करने के लिए एक सर्प का सहारा लिया तो उसका स्वाभिमान एवं सम्मान किस प्रकार सुरक्षित रहेगा? वह आने वाले मानवता को अपना मुख कैसे दिखाएगा। इस प्रकार या कविता हमें एक बहुत बड़ा संदेश देती है।


उद्देश्य-

मनुष्य और सर्प कविता का उद्देश्य: इस कविता के माध्यम से दिनकर जी द्वारा मानव चरित्र के आदर्श रूप का चित्रण किया गया है वर्तमान युग के सभ्य किंतु दूषित राजनीति में व्यक्ति स्वार्थ सिद्धि हेतु अपने शत्रु के विनाश के लिए किसी भी सीमा तक गिर सकता है। आज की राजनीति का आदर्श वाक्य- "शत्रु का शत्रु अपना मित्र" बन गया है। किंतु हजारों वर्ष पहले ऐसा ना था उस युग में युद्ध में भी निश्चित नियमों और मर्यादाओं का पालन किया जाता था। युद्ध सूर्योदय के साथ आरंभ होते और सूर्यास्त के साथ ही सेनाएं वापस सिविर में चली जाती थी। महाभारत के युद्ध में कर्ण और अर्जुन के युद्ध के निर्णायक समय में अचानक अर्जुन के शत्रु नागों के राजा अश्वसेन ने कर्ण के तर्कस में प्रवेश करके उससे कहा कि वह उसे वाण के रूप में अपने धनुष पर रखकर शत्रु अर्जुन तक भेज दे। शेष कार्य वह स्वयं करके अर्जुन को मारकर अपना बदला ले लेगा। इसी प्रकार कर्ण को भी अपने एक प्रबल शत्रु से छुटकारा मिल जाएगा। इस पर कर्ण नागों के स्वामी अश्वसेन के प्रस्ताव को दृढ़ता से ठुकरा दिया। इस प्रकार कर्ण ने अपने चारित्रिक दृढ़ता का परिचय भी दिया।

व्याख्या और संदेश 

चल रहा महाभारत का रण, जल रहा धरित्री का सुहाग,
फट कुरुक्षेत्र में खेल रही, नर के भीतर की कुटिल आग।
वाजियों-गजों की लोथों में, गिर रहे मनुज के छिन्न अंग,
बह रहा चतुष्पद और द्विपद का रुधिर मिश्र हो एक संग।

प्रसंग

 कविवर दिनकर जी ने महाभारत युद्ध का संक्षिप्त वर्णन करते हुए यह दर्शाया है कि एक दिन जब कर्ण एवं अर्जुन का युद्ध हो रहा था तो अर्जुन के पूर्व शत्रु अश्वसेन नामक सर्प ने अर्जुन का वध करने में कर्ण की सहायता करने का प्रस्ताव किया। किंतु वीर, साहसी कर्ण ने उसे ठुकरा दिया। क्योंकि सर्प मानवता का शत्रु है यदि उसने अर्जुन पर विजय प्राप्त करने के लिए सर्प का सहयोग लिया तो आने वाली मानवता उसे कभी क्षमा नहीं करेगी। इस प्रकार यह कविता हमें एक बहुत बड़ा संदेश देती है।


 व्याख्या

प्रस्तुत पद में कविवर दिनकर जी महाभारत के भीषण युद्ध का वर्णन करते हुए कहते हैं की महाभारत का युद्ध चल रहा है। धरती का सौभाग्य जल रहा है। कुरुक्षेत्र के मैदान में मृत्यु अपना तांडव नृत्य कर रही है। कुटिल अग्नि हर व्यक्ति के अंदर जल रही है। भाव यह है कि कपट - छल से मनुष्य दूसरों को मार कर अपने आप को संतुष्ट करता है। कुरुक्षेत्र की युद्ध भूमि का इस प्रकार का दृश्य है कि वहां पर हाथी, घोड़ों के मांस के टुकड़ों पर मनुष्य के छिन्न - भिन्न अंग भी गिर रहे हैं। अर्थात वहां पर भीषण युद्ध हो रहा है जिससे हाथी- घोड़ों आदि के साथ मानव का खून भी बह रहा है। इस प्रकार कवि ने कौरव - पांडवों के युद्ध का दृश्य प्रस्तुत किया है।




गत्वर, गैरेय,सुघर भूधर से, लिए रक्त-रंजित शरीर,
थे जूझ रहे कौंतेय-कर्ण, क्षण-क्षण करते गर्जन गंभीर।
दोनों रण-कुशल धनुर्धर नर, दोनों सम बल, दोनों समर्थ,
दोनों पर दोनों की अमोघ, थी विशिख वृष्टि हो रही व्यर्थ।

प्रसंग 

प्रस्तुत पंक्ति में कविवर दिनकर जी ने महाभारत के युद्ध का जीवंत दृश्य प्रस्तुत किया है कौरवों का सेनापति कर्ण एवं पांडवों की ओर से अर्जुन जब एक दूसरे के सामने आकर युद्ध करते हैं तो दोनों युद्ध क्षेत्र को भयानक बना देते हैं।


 व्याख्या 

कवि दिनकर जी के अनुसार - काल, पृथ्वी को धारण करने वाले भगवान शेष नागजी ने खून से सने हुए शरीर को मानो बलपूर्वक तेजी से छीन कर लिए जा रहे हो। कुरुक्षेत्र की युद्ध भूमि में कुंती पुत्र अर्जुन एवं कौरवों के सेनापति कर्ण पल-पल भर भयानक गर्जना करके एक दूसरे से युद्ध कर रहे थे‌। दोनों कुंती पुत्र अर्जुन एवं कर्ण धनुष चलाने की कला में रन कुशल, समान रूप से शक्तिशाली तथा समर्थ्यवान थे। दोनों रण बांकुरे एक दूसरे पर अचूक शक्तियों का प्रयोग कर रहे थे। रणभूमि में दोनों योद्धाओं के युद्ध के कारण अग्नि वृष्टि (वर्षा) भी व्यर्थ हो रही थी।

क्योंकि कोई किसी को हरा नहीं पा रहा था। इससे युद्ध क्षेत्र का संपूर्ण वातावरण भयानक होता जा रहा था।



इतने में शर के लिए कर्ण ने, देखा ज्यों अपना निषंग,
तरकस में से फुंकार उठा, कोई प्रचंड विषधर भुजंग।
कहता कि कर्ण ! मैं अश्वसेन, विश्रुत भुजंगों का स्वामी हूँ,
जन्म से पार्थ का शत्रु परम, तेरा बहुविधि हितकामी हूँ।

प्रसंग 

प्रस्तुत पंक्ति में कविवर दिनकर जी ने उस दृश्य का वर्णन किया है जब अश्वसेन नामक सर्प, कर्ण द्वारा तरकश से तीर निकलने पर एक विषैले सर्प के रूप में फूंकार कर अर्जुन को हराने के लिए उसकी (कर्ण की) सहायता देने को तत्पर है।


व्याख्या

 कविवर दिनकर जी के अनुसार कुरुक्षेत्र के युद्ध भूमि में जिस समय कौरव सेनापति कर्ण एवं अर्जुन एक दूसरे पर बड़ी कुशलता एवं निपुणता से वाणो की वर्षा कर रहे थे। उसी समय कर्ण ने अपने तरकश से तिर निकालने के लिए उसकी तरकश की ओर देखा तो तरकश में से एक अत्यंत भयानक विषैला सर्प फूंकार की आवाज के साथ उठ खड़ा होआ। उसने कर्ण को संबोधित करते हुए कहा-  हे कर्ण ! मैं सांपों में प्रसिद्ध सर्पराज अश्वसेन हूं।  मैं पार्थ (कुंती पुत्र अर्जुन)  का एक महान शत्रु हूं। (क्योंकि शत्रु का शत्रु होना मित्र कहलाता है) मैं तुम्हारा अनेक प्रकार से हित चाहने वाला हूं। 



बस एक बार कर कृपा धनुष पर, चढ़ शख्य तक जाने दे,

इस महाशत्रु को अभी तुरत, स्पंदन में मुझे सुलाने दे।
कर वमन गरल जीवन-भर का, संचित प्रतिशोध, उतारूँगा,
तू मुझे सहारा दे, बढ़कर, मैं अभी पार्थ को मारूँगा।

प्रसंग

 प्रस्तुत पंक्तियों में कविवर दिनकर जी ने कर्ण एवं सांपों के राजा अश्वसेन के परस्पर वार्तालाप का उल्लेख किया है। इसमें अश्वसेन नाम का भयंकर विषधर सर्प अपने परम शत्रु अर्जुन से अपना बदला उसे मौत रूपी निद्रा में सुला कर लेना चाहता है।


व्याख्या

 कविवर दिनकर जी के अनुसार भयंकर बिषधर अश्वसेन कर्ण से कहता है कि हे कर्ण आप मुझे मात्र एक बार कृपा करके धनुष पर चढ़कर अपने परम शत्रु अर्जुन के पास तक जाने दीजिए। जिससे मैं उसे अभी तुरंत मौत रूपी रथ में सुला सकूं। मैं अपना बदला लेने के लिए संपूर्ण जीवन का एकत्रित विष अर्जुन के शरीर में प्रतिशोध के रूप में डाल दूंगा है। कर्ण तू मुझे इस कार्य में आगे बढ़कर तुरंत सहयोग कर। मैं इसी समय अर्जुन को मार कर अपना बदला लूंगा। इस प्रकार सर्प  अश्वसेन एवं कर्ण दोनों ही पार्थ से बदला लेने में समर्थयवान हो सकते हैं।

राधेय ज़रा हँसकर बोला, रे कुटिल ! बात क्या कहता है?
जय का समस्त साधन नर का, अपनी बाहों में रहता है।
उसपर भी साँपों से मिलकर मैं मनुज, मनुज से युद्ध करूँ?
जीवन-भर जो निष्ठा पाली, उससे आचरण विरुद्ध करूँ?

प्रसंग 

प्रस्तुत पंक्ति में कविवर दिनकर जी ने महाभारत की कथा के माध्यम से राधेय कर्ण के मानवतावादी दृष्टिकोण को उजागर किया है। वह (कर्ण) मनुष्य होकर मनुष्य के साथ ही युद्ध करने के लिए सर्प जैसे प्राणी से सहायता लेने से मना कर देते हैं।


व्याख्या 

कवि दिनकर जी के अनुसार विषधर अश्वसेन की बातों को सुनकर राधेय (कर्ण) ने मुस्कुराकर कहा कि हे कपटी ! तुम क्या यह कपट पूर्ण बात कह रहे हो? यदि मनुष्य जीत प्राप्त करना चाहता है। तो विजय के समस्त साधन प्रत्येक पल उसकी बाहों में रहते हैं। अर्थात वह अपनी बाहों की शक्ति से विजय प्राप्त कर सकता है। तुम्हारे कथन अनुसार मैं मनुष्य होकर मनुष्य के साथ ही युद्ध करने के लिए तुम जैसे सर्प की सहायता लूं। मैंने अपने संपूर्ण जीवन में जिस निष्ठा का पालन किया है। उसके विपरीत आचरण मैं किस प्रकार कर सकता हूं । इसका तात्पर्य यह है कि कर्ण अर्जुन को दूसरों की सहायता ना लेकर अपने बल पर मारना चाहता है।



तेरी सहायता से जय तो, मैं अनायास पा जाऊँगा,
आनेवाली मानवता को, लेकिन क्या मुख दिखलाऊँगा?
संसार कहेगा, जीवन का, सब सुकृत कर्ण ने क्षार किया,
प्रतिभट के वध के लिए, सर्प का पापी ने साहाय्य लिया।

प्रसंग 

प्रस्तुत पद में कविवर दिनकर जी ने महाभारत की कथा के अनुसार कौंरव सेनापति कर्ण को मानवता का समर्थक मानकर विषधर अश्वसेन द्वारा दी जा रही सहायता को ठुकरा देने का भाव अच्छे प्रकार से रखा है।


व्याख्या 

कविवर दिनकर जी के अनुसार कौरव सेनापति कर्ण सर्प राज अश्वसेन से कहते हैं कि मैं तुम्हारी सहायता से अर्जुन पर विजय बिना परिश्रम (संघर्ष) के प्राप्त कर लूंगा, परंतु मैं आने वाले मनुष्य की पीढ़ी को अपना मुंह किस प्रकार दिखला पाऊंगा। क्योंकि इस प्रकार की जीत छल - कपट द्वारा प्राप्त की गई होगी। जिस के सामने आने पर मैं क्या उत्तर दूंगा, संपूर्ण संसार यही कहेगा कि महावीर कर्ण ने अपने शत्रु अर्जुन को पराजित करने के लिए एक सर्प का सहयोग लिया था। इस प्रकार उस पापी कर्ण ने अपने संपूर्ण जीवन के सभी अच्छे कर्मों (दान-पुण्य) को राख कर दिया। इसका भावार्थ यह है कि महाबली कर्ण धनुर्धर अर्जुन की वीरता को स्वीकार करता है। किंतु अर्जुन का वध करने के लिए किसी की सहायता स्वीकार नहीं है।



रे अश्वसेन ! तेरे अनेक वंशज हैं छिपे नरों में भी,
सीमित वन में ही नहीं, बहुत बसते पुरग्राम-घरों में भी।
ये नर-भुजंग मानवता का, पथ कठिन बहुत कर देते हैं,
प्रतिबल के वध के लिए नीच, साहाय्य सर्प का लेते हैं।

प्रसंग

प्रस्तुत पद में कविवर दिनकर जी ने महाभारत कथा में वर्णित प्रसंग में कौरव सेनापति कर्ण, सर्पराज अश्वसेन की सहायता लेने से मना करते हुए उसे कहते हैं कि मेरे द्वारा तुझ जैसे सांर्पों की सहायता लेना संपूर्ण पुण्य कर्म को नष्ट करने के समान है। अतः वह इस प्रकार का कोई कुकृत्य नहीं कर सकते ।

अर्जुन का मुकाबला वे स्वयं अपनी शक्ति के आधार पर कर सकेंगे।


व्याख्या 

कविवर दिनकर जी के अनुसार सर्प को संबोधित करते हुए कर्ण कहते हैं कि- रे आश्वासन ! तेरे ही वंश में उत्पन्न होने वाली तेरी अनेक संताने मानव रूप में इस पृथ्वी में छिपी हैं। जो केवल जंगलों तक ही सीमित नहीं है बल्कि वे नगरो, शहरों तथा गांवों में भी रहती हैं। इसका भाव यह है कि छल द्वारा दूसरों को हानि पहुंचाने वाले मानव पृथ्वी पर सब जगह रहते हैं, यह न तो स्वयं मानव की तरह रहते हैं और ना ही मानवता को रहने देते हैं। यह मानवरूपी सर्प मानवता के ही राह अत्यंत कठिन कर देते हैं। जिससे मानव ही मानव का शत्रु बन जाता है। अपने सशक्त प्रतिद्वंदी (शत्रु) को मारने के लिए सर्प का सहारा नीचे लोग ही लेते हैं क्योंकि उनमें अपने शत्रु का सामना करने की शक्ति एवं हिम्मत नहीं होती है।



ऐसा न हो कि इन साँपों में, मेरा भी उज्ज्वल नाम चढ़े,
पाकर मेरा आदर्श और कुछ, नरता का यह पाप बढ़े।
अर्जुन है मेरा शत्रु, किन्तु वह सर्प नहीं, नर ही तो है,
संघर्ष, सनातन नहीं, शत्रुता, इस जीवन-भर ही तो है।

प्रसंग

दिनकर जी ने कर्ण के माध्यम से यह व्यक्त किया है कि आज के समाज में मानव रूप में जितने भी सर्प संपूर्ण पृथ्वी पर निवास करते हैं हम सब को उन्हें त्याग देना चाहिए क्योंकि यह संपूर्ण मानवता के परम शत्रु हैं।


व्याख्या 

 कविवर दिनकर जी के अनुसार कर्ण, सर्पराज अश्वसेन से कहता है कि-  हे सर्पराज! अश्वसेन यदि मैं तुम्हारे द्वारा प्रदान किए गए सहायता को स्वीकार करता हूं तो मानव रूप में जो सर्प इस समाज मौजूद है उनमें तेरे जैसे स्वच्छ छवि वाले व्यक्ति का नाम भी जोड़ दिया जाएगा। भविष्य में आने वाली पीढ़ी मुझे आदर्श मानकर मानवता की इस पाप की ओर बढ़ेगी जिससे संसार में मानवता का नाश होगा‌। अस्तु हे सर्पराज! अर्जुन मेरा महान शत्रु है परंतु वह सर्प नहीं है जो मैं तुम्हारी सहायता स्वीकार करूं। वह तो एक सामान्य मानव है। हमारा अर्जुन के साथ संघर्ष जन्मांतर का नहीं है बल्कि इसी जन्म का है इसके पश्चात शायद यह शत्रुता नहीं रहेगी।




अगला जीवन किसलिए भला, तब हो द्वेषांध बिगाड़ूँ मैं,
साँपों की जाकर शरण, सर्प बन, क्यों मनुष्य को मारूँ मैं?
जा भाग, मनुज का सहज शत्रु, मित्रता न मेरी पा सकता,
मैं किसी हेतु भी यह कलंक, अपने पर नहीं लगा सकता।

प्रसंग

 इस कविता में दिनकर जी ने वीर योद्धा कर्ण के मानवीय दृष्टिकोण को उजागर किया है उनके अनुसार सर्प मानवता का शत्रु है। आज के समाज में मानव रूप में जितने भी सर्प विद्यमान है उन्हें हमें कर्ण की भांति ही त्याग करना चाहिए तभी मनुष्य जाति की रक्षा हो सकेगी। कवि द्वारा आज के समाज को इसी प्रकार की सीख दी गई है।


 व्याख्या

कविवर दिनकर जी के अनुसार कर्ण सर्पराज अश्वसेन को संबोधित करते हुए कहता है कि- हे अश्वसेन! मैं बदले की भावना में अंधा होकर अपना अगला जन्म क्यों बिगड़ूं? मैं तुम जैसे सांर्पों की शरण में जाकर मनुष्य के रूप में सर्प बनकर एक मनुष्य (अर्जुन) को क्यों मारूं? अस्तु सर्पराज! तू संपूर्ण मानवता का स्वाभाविक शत्रु है। तू यहां से तुरंत भाग जा, क्योंकि तू मेरे मित्रता को नहीं प्राप्त कर सकता है। मैं तेरा मित्र बनकर और तेरी सहायता लेकर अर्जुन का वध कर इस प्रकार का भयानक कलंक मैं अपने ऊपर नहीं लगा सकता क्योंकि यह मानवता के प्रति अपराध होगा। 


Short Questions Answer:

1.मनुष्य और सर्प कविता में किस दृष्टिकोण का वर्णन हुआ है?

उत्तर: मनुष्य और सर्प कविता में मानवतावादी दृष्टिकोण का वर्णन हुआ है।


2.मनुष्य और सर्प कविता में किस युद्ध का वर्णन हुआ है?

उत्तर: मनुष्य और सर्प कविता में महाभारत में वर्णित कुरुक्षेत्र के भयावह युद्ध की विभीषिका का वर्णन हुआ है।


3.मनुष्य और सिर्फ कविता का मूल भाव क्या है?

उत्तर: कविता का मूल भाव यह है की शत्रुता कभी भी शाश्वत नहीं होती और यह मानवता के लिए अभिशाप है। इससे किसी समस्या का समाधान नहीं होता।


3.आश्वासन कौन थे?

उत्तर: अर्जुन का चिरकाल का शत्रु जो कर्ण के माध्यम से उस अर्जुन को मारना चाहता था।


4.शत्रु और शत्रुता के संबंध में मनुष्य और सर्प कविता के आधार पर कर्ण के विचारों को स्पष्ट कीजिए।

उत्तर: सर्प के रूप में अश्वसेन की सहायता को नकार कर कर्ण ने अपने मानवतावादी दृष्टिकोण का परिचय दिया है।


5.कवि रामधारी सिंह दिनकर के अनुसार वर्तमान युग में सर्प किस रूप में दिखाई दे रहे हैं?

उत्तर: कवि कहते हैं कि वर्तमान युग में सर्प मानव वेश में छिपे हुए दिखाई दे रहे हैं।


6.मनुष्य और सर्प कविता का उद्देश्य क्या है?

उत्तर: मनुष्य और सर्प कविता में मानव चरित्र के आदर्श रूप का चित्रण किया है। आज की राजनीति का आदर्श वाक्य "शत्रु का शत्रु अपना मित्र" बन गया है यही स्पष्ट करना कवि का अभीष्ट है।


7.सर्प रूप अश्वसेन ने कर्ण से क्या कहा है?

उत्तर: सर्प रूप धारण करने वाले अश्वसेन कर्ण से कहा कि तुम अपने धनुष पर मुझे चढ कर अर्जुन की ओर छोड़ दो ताकि वह अपना पुराना बदला अर्जुन से ले। यह अपना विष अर्जुन के शरीर में प्रवेश कर उसका काम तमाम कर करके अपना बदला ले लेगा।


8.प्रस्तुत कविता में कवि क्या संदेश प्रचारित करता है? 

उत्तर: प्रस्तुत कविता में कवि अपनी आदर्श चरित्र द्वारा नर रूप सर्प से सावधान करते हुए मानवतावादी दृष्टिकोण का परिचय देता है।


9.दिनकर जी के संबंध में डॉक्टर राजेस्वर प्रसाद चतुर्वेदी ने क्या कहा है?

उत्तर: पीड़ित मानवता और दलित समाज के प्रति दिनकर की सहानुभूति प्रत्येक पंक्ति में प्रस्फुटित है उनकी कविता में जहां राष्ट्रीयता की अभिव्यक्ति हुई है वहीं दूसरी ओर विश्व कल्याण के महती भावना की भी व्यंजना हुई है। दिनकर राष्ट्रीयता, अंतर्राष्ट्रीय की समर्थक है। इस उदात्त भावना के परिप्रेक्ष्य में ही वह विश्व में क्रांति द्वारा शांति का सपना देखते हैं।


10.दिनकर जी किस प्रवृत्ति के कवि हैं?

उत्तर: दिनकर जी 'ओज और पौरुष' के कवि हैं।


दिनकर जी की कविता में विशेष रूप से क्या पाया जाता है?

उत्तर: दिनकर जी की कविता में महर्षि दयानंद की सी निर्भीकता, नवीन की तेजस्विता, भगत सिंह जैसा बलिदान की सी कर्मठता और कबीर की सी विचारों की स्वच्छंदता के साथ-साथ सुधारवादिता विद्यमान है।


11.दिनकर जी की कविता में प्रमुख क्या है?

उत्तर: उत्कट राष्ट्रीयता और उज्जवल देश प्रेम की अभिव्यक्ति।


 तरकश में कौन फुफकार उठा?

 उत्तर: सर्प रूप धारण किए हुए अर्जुन का शत्रु अश्वसेन।


 शत्रु और शत्रुता के संबंध में कर्ण के क्या विचार हैं? उत्तर: कर्ण के विचार में बुद्धिमान मनुष्य शत्रुता को अपने जीवन तक सीमित रखते हैं वह उसे आगे नहीं बढ़ाते।


12.सांप रूप अश्वसेन की बात सुनकर कर्ण ने हंसते हुए क्या कहा?

उत्तर: सांप रूप अश्वसेन की बातें सुनकर कर्ण ने हंसते हुए कहा कि तुम छली हो, कपटी हो, सदा छल और कपट की बातें करते हो।


13.कर्ण अश्वसेन की सहायता क्यों नहीं लेना चाहता था?

उत्तर: कर्ण अश्वसेन की सहायता इसलिए नहीं लेना चाहता था क्योंकि उसका उज्ज्वल चरित्र कलंकित हो जाएगा।


14.अपने शत्रु को पराजित करने के लिए दूसरों की सहायता कौन लोग लेते हैं?

उत्तर: कर्ण कहता है कि अपने शत्रु को पराजित करने या मारने की बात वे लोग करते हैं जो नीच, पापी तथा कपटी होते हैं।


15.महाभारत के युद्ध किनके बीच हुआ था?

उत्तर: महाभारत का युद्ध कौरवों तथा पांडवों के बीच हुआ था।


16.कर्ण एवं सर्प के माध्यम से कवि ने क्या संदेश दिया है?

उत्तर: कर्ण एवं सर्प के माध्यम से कवि ने सत्य कर्म का संदेश दिया है।


17.जन्म से पार्थ का परम शत्रु कौन था?

उत्तर:अश्वसेन


18.अश्वसेन कौन था?

 उत्तर: अश्वसेन नाग था। 


19.अश्वसेन अर्जुन को अपना जन्मजात शत्रु क्यों मानता है?

उत्तर: खांडवप्रस्थ के समय अर्जुन ने नागवंशियों का विनाश किया था इसलिए अश्वसेन अर्जुन को अपना जन्मजात शत्रु मानता है।


20."संघर्ष सनातन नहीं शत्रुता इस जीवन भारी तो है"- यह कौन, किसे कहता है?

उत्तर: कर्ण अश्वसेन से कहता है।


21.कर्ण की सहायता कौन करना चाहता था? और क्यों?

उत्तर: कर्ण की सहायता अश्वसेन करना चाहता था ताकि वह अपना पुराना बदला अर्जुन से ले सके।


22.किसका सुहाग जल रहा है? और क्यों?

उत्तर: पृथ्वी का सुहाग जल रहा है क्योंकि महाभारत का भीषण युद्ध चल रहा था।


23.कर्ण और अर्जुन दोनों पर वणों की अग्नि वर्षा व्यर्थ क्यों हो रही थी?

उत्तर: दोनों कुंती-पुत्र अर्जुन एवं कर्ण धनुष चलाने की कला में रण-कुशल, समान रूप से शक्तिशाली तथा सामर्थ्यवान थे। दोनों रण- बंकुरे एक दूसरे पर अचूक शक्तियों का प्रयोग कर रहे थे। रणभूमि में दोनों योद्धाओं के युद्ध के कारण अग्नि वर्षा भी व्यर्थ सी हो रही थी क्योंकि कोई किसी को हरा नहीं पा रहा था।


24."आने वाली मानवता को, लेकर क्या मुख दिखलाऊंगा" यह कौन और क्यों कह रहा है?

उत्तर: कविवर दिनकर जी के अनुसार कौरव सेनापति कर्ण सर्पराज अश्वसेन से कहते हैं कि- मैं तुम्हारे सहायता से पार्थ (अर्जुन) पर विजय बिना परिश्रम (संघर्ष) के प्राप्त कर लूंगा, परंतु मैं आने वाली मनुष्यों की पीढ़ी को अपना मुंह किस प्रकार दिखला पाऊंगा, क्योंकि इस प्रकार की जीत छल-कपट द्वारा प्राप्त की गई होगी। जिसके सामने आने पर में क्या उत्तर दूंगा?




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Movements Organized By Women, Students, And Marginal People In 20th Century India: Characteristics And Analyses (History _Chapter 7~ WBBSE Questions and Answers ) Madhyamik