'केवट प्रसंग' Summary, Explanation, Word meanings, MCQs, Class 12 Semester 3
'केवट प्रसंग'
जासु बियोग बिकल पसु ऐसें। प्रजा मातु पितु जिइहहिं कैसें॥
बरबस राम सुमंत्रु पठाए। सुरसरि तीर आपु तब आए॥1॥
मागी नाव न केवटु आना। कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना॥
चरन कमल रज कहुँ सबु कहई। मानुष करनि मूरि कछु अहई॥2॥
छुअत सिला भइ नारि सुहाई। पाहन तें न काठ कठिनाई॥
तरनिउ मुनि घरिनी होइ जाई। बाट परइ मोरि नाव उड़ाई॥3॥
एहिं प्रतिपालउँ सबु परिवारू। नहिं जानउँ कछु अउर कबारू॥
जौं प्रभु पार अवसि गा चहहू। मोहि पद पदुम पखारन कहहू॥4॥
छन्द :
पद कमल धोइ चढ़ाइ नाव न नाथ उतराई चहौं।
मोहि राम राउरि आन दसरथसपथ सब साची कहौं॥
बरु तीर मारहुँ लखनु पै जब लगि न पाय पखारिहौं।
तब लगि न तुलसीदास नाथ कृपाल पारु उतारिहौं॥
सोरठा :
सुनि केवट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे।
बिहसे करुनाऐन चितइ जानकी लखन तन॥
चौपाई :
कृपासिंधु बोले मुसुकाई। सोइ करु जेहिं तव नाव न जाई॥
बेगि आनु जलपाय पखारू। होत बिलंबु उतारहि पारू॥1॥
जासु नाम सुमिरत एक बारा। उतरहिं नर भवसिंधु अपारा॥
सोइ कृपालु केवटहि निहोरा। जेहिं जगु किय तिहु पगहु ते थोरा॥2॥
पद नख निरखि देवसरि हरषी। सुनि प्रभु बचन मोहँ मति करषी॥
केवट राम रजायसु पावा। पानि कठवता भरि लेइ आवा॥3॥
अति आनंद उमगि अनुरागा। चरन सरोज पखारन लागा॥
बरषि सुमन सुर सकल सिहाहीं। एहि सम पुन्यपुंज कोउ नाहीं॥4॥
दोहा :
पद पखारि जलु पान करि आपु सहित परिवार।
पितर पारु करि प्रभुहि पुनि मुदित गयउ लेइ पार॥101॥
चौपाई :
उतरि ठाढ़ भए सुरसरि रेता। सीय रामुगुह लखन समेता॥
केवट उतरि दंडवत कीन्हा। प्रभुहि सकुच एहि नहिं कछु दीन्हा॥1॥
पिय हिय की सिय जाननिहारी। मनि मुदरी मन मुदित उतारी॥
कहेउ कृपाल लेहि उतराई। केवट चरन गहे अकुलाई॥2॥
नाथ आजु मैं काह न पावा। मिटे दोष दुख दारिद दावा॥
बहुत काल मैं कीन्हि मजूरी। आजु दीन्ह बिधि बनि भलि भूरी॥3॥
अब कछु नाथ न चाहिअ मोरें। दीन दयाल अनुग्रह तोरें॥
फिरती बार मोहि जो देबा। सो प्रसादु मैं सिर धरि लेबा॥4॥
दोहा :
बहुत कीन्ह प्रभु लखन सियँ नहिं कछु केवटु लेइ।
बिदा कीन्ह करुनायतन भगति बिमल बरु देइ॥102॥
चौपाई :
तब मज्जनु करि रघुकुलनाथा। पूजि पारथिव नायउ माथा॥
सियँ सुरसरिहि कहेउ कर जोरी। मातु मनोरथ पुरउबि मोरी॥1॥
पति देवर सँग कुसल बहोरी। आइ करौं जेहिं पूजा तोरी॥
सुनि सिय बिनय प्रेम रस सानी। भइ तब बिमल बारि बर बानी॥2॥
सुनु रघुबीर प्रिया बैदेही। तब प्रभाउ जग बिदित न केही॥
लोकप होहिं बिलोकत तोरें। तोहि सेवहिं सब सिधि कर जोरें॥3॥
तुम्ह जो हमहि बड़ि बिनय सुनाई। कृपा कीन्हि मोहि दीन्हि बड़ाई॥
तदपि देबि मैं देबि असीसा। सफल होन हित निज बागीसा॥4॥
दोहा :
प्राननाथ देवर सहित कुसल कोसला आइ।
पूजिहि सब मनकामना सुजसु रहिहि जग छाइ॥103॥
चौपाई :
गंग बचन सुनि मंगल मूला। मुदित सीय सुरसरि अनुकूला॥
तब प्रभु गुहहि कहेउ घर जाहू। सुनत सूख मुखु भा उर दाहू॥1॥
दीन बचन गुह कह कर जोरी। बिनय सुनहु रघुकुलमनि मोरी॥
नाथ साथ रहि पंथु देखाई। करि दिन चारि चरन सेवकाई॥2॥
जेहिं बन जाइ रहब रघुराई। परनकुटी मैं करबि सुहाई॥
तब मोहि कहँ जसि देब रजाई। सोइ करिहउँ रघुबीर दोहाई॥3॥
सहज सनेह राम लखि तासू। संग लीन्ह गुह हृदयँ हुलासू॥
पुनि गुहँ ग्याति बोलि सब लीन्हे। करि परितोषु बिदा तब कीन्हे॥4॥
'केवट प्रसंग' (Summary, Explanation, Word meanings, MCQs, Class 12 Semester 3)
यह रामचरितमानस (अयोध्या कांड) का बहुत ही प्रसिद्ध और भावपूर्ण 'केवट प्रसंग' है। इसमें गोस्वामी तुलसीदास जी ने भगवान राम और केवट (नाविक) के बीच के संवाद और केवट की अनन्य भक्ति का वर्णन किया है।
विस्तृत सारांश (Detailed Summary)
जब भगवान राम, सीता और लक्ष्मण वनवास के दौरान गंगा तट पर पहुँचते हैं, तो वे नदी पार करने के लिए केवट से नाव मांगते हैं। केवट, जो राम की महिमा को जानता है, नाव लाने से मना कर देता है। उसका तर्क बड़ा ही भोला और प्रेमपूर्ण है। वह कहता है कि "मैंने सुना है आपके चरणों की धूल में कोई जादू है, जिससे पत्थर की शिला (अहिल्या) स्त्री बन गई थी। मेरी नाव तो लकड़ी की है, अगर यह भी स्त्री बन गई तो मेरी रोजी-रोटी (नाव) चली जाएगी और मेरे पास एक और स्त्री का भार आ जाएगा।"
केवट शर्त रखता है कि वह पहले राम के पैर धोएगा, तभी उन्हें नाव में चढ़ाएगा। भगवान राम केवट की इन प्रेम-पगी (अटपटी) बातों को सुनकर मुस्कुराते हैं और उसे अनुमति दे देते हैं। केवट अत्यंत प्रसन्न होकर काठ के बर्तन (कठवता) में पानी भरकर लाता है, बड़े प्रेम से भगवान के पैर धोता है, उस जल को पीता है (चरणामृत लेता है) और फिर प्रभु को गंगा पार कराता है।
पद्यांश-वार व्याख्या (Stanza-wise Summary)
जासु बियोग बिकल पसु ऐसें। प्रजा मातु पितु जिइहहिं कैसें॥
बरबस राम सुमंत्रु पठाए। सुरसरि तीर आपु तब आए॥1॥
भावार्थ:-जिनके वियोग में पशु इस प्रकार व्याकुल हैं, उनके वियोग में प्रजा, माता और पिता कैसे जीते रहेंगे? श्री रामचन्द्रजी ने जबर्दस्ती सुमंत्र को लौटाया। तब आप गंगाजी के तीर पर आए॥1॥
मागी नाव न केवटु आना। कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना॥
चरन कमल रज कहुँ सबु कहई। मानुष करनि मूरि कछु अहई॥2॥
भावार्थ:-श्री राम ने केवट से नाव माँगी, पर वह लाता नहीं। वह कहने लगा- मैंने तुम्हारा मर्म (भेद) जान लिया। तुम्हारे चरण कमलों की धूल के लिए सब लोग कहते हैं कि वह मनुष्य बना देने वाली कोई जड़ी है,॥2॥
छुअत सिला भइ नारि सुहाई। पाहन तें न काठ कठिनाई॥
तरनिउ मुनि घरिनी होइ जाई। बाट परइ मोरि नाव उड़ाई॥3॥
भावार्थ:-जिसके छूते ही पत्थर की शिला सुंदरी स्त्री हो गई (मेरी नाव तो काठ की है)। काठ पत्थर से कठोर तो होता नहीं। मेरी नाव भी मुनि की स्त्री हो जाएगी और इस प्रकार मेरी नाव उड़ जाएगी, मैं लुट जाऊँगा (अथवा रास्ता रुक जाएगा, जिससे आप पार न हो सकेंगे और मेरी रोजी मारी जाएगी) (मेरी कमाने-खाने की राह ही मारी जाएगी)॥3॥
एहिं प्रतिपालउँ सबु परिवारू। नहिं जानउँ कछु अउर कबारू॥
जौं प्रभु पार अवसि गा चहहू। मोहि पद पदुम पखारन कहहू॥4॥
भावार्थ:-मैं तो इसी नाव से सारे परिवार का पालन-पोषण करता हूँ। दूसरा कोई धंधा नहीं जानता। हे प्रभु! यदि तुम अवश्य ही पार जाना चाहते हो तो मुझे पहले अपने चरणकमल पखारने (धो लेने) के लिए कह दो॥4॥
छन्द :
पद कमल धोइ चढ़ाइ नाव न नाथ उतराई चहौं।
मोहि राम राउरि आन दसरथसपथ सब साची कहौं॥
बरु तीर मारहुँ लखनु पै जब लगि न पाय पखारिहौं।
तब लगि न तुलसीदास नाथ कृपाल पारु उतारिहौं॥
भावार्थ:-हे नाथ! मैं चरण कमल धोकर आप लोगों को नाव पर चढ़ा लूँगा, मैं आपसे कुछ उतराई नहीं चाहता। हे राम! मुझे आपकी दुहाई और दशरथजी की सौगंध है, मैं सब सच-सच कहता हूँ। लक्ष्मण भले ही मुझे तीर मारें, पर जब तक मैं पैरों को पखार न लूँगा, तब तक हे तुलसीदास के नाथ! हे कृपालु! मैं पार नहीं उतारूँगा।
सोरठा :
सुनि केवट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे।
बिहसे करुनाऐन चितइ जानकी लखन तन॥
भावार्थ:-केवट के प्रेम में लपेटे हुए अटपटे वचन सुनकर करुणाधाम श्री रामचन्द्रजी जानकीजी और लक्ष्मणजी की ओर देखकर हँसे॥
चौपाई :
कृपासिंधु बोले मुसुकाई। सोइ करु जेहिं तव नाव न जाई॥
बेगि आनु जलपाय पखारू। होत बिलंबु उतारहि पारू॥1॥
भावार्थ:-कृपा के समुद्र श्री रामचन्द्रजी केवट से मुस्कुराकर बोले भाई! तू वही कर जिससे तेरी नाव न जाए। जल्दी पानी ला और पैर धो ले। देर हो रही है, पार उतार दे॥1॥
जासु नाम सुमिरत एक बारा। उतरहिं नर भवसिंधु अपारा॥
सोइ कृपालु केवटहि निहोरा। जेहिं जगु किय तिहु पगहु ते थोरा॥2॥
भावार्थ:-एक बार जिनका नाम स्मरण करते ही मनुष्य अपार भवसागर के पार उतर जाते हैं और जिन्होंने (वामनावतार में) जगत को तीन पग से भी छोटा कर दिया था (दो ही पग में त्रिलोकी को नाप लिया था), वही कृपालु श्री रामचन्द्रजी (गंगाजी से पार उतारने के लिए) केवट का निहोरा कर रहे हैं!॥2॥
पद नख निरखि देवसरि हरषी। सुनि प्रभु बचन मोहँ मति करषी॥
केवट राम रजायसु पावा। पानि कठवता भरि लेइ आवा॥3॥
भावार्थ:-प्रभु के इन वचनों को सुनकर गंगाजी की बुद्धि मोह से खिंच गई थी (कि ये साक्षात भगवान होकर भी पार उतारने के लिए केवट का निहोरा कैसे कर रहे हैं), परन्तु (समीप आने पर अपनी उत्पत्ति के स्थान) पदनखों को देखते ही (उन्हें पहचानकर) देवनदी गंगाजी हर्षित हो गईं। (वे समझ गईं कि भगवान नरलीला कर रहे हैं, इससे उनका मोह नष्ट हो गया और इन चरणों का स्पर्श प्राप्त करके मैं धन्य होऊँगी, यह विचारकर वे हर्षित हो गईं।) केवट श्री रामचन्द्रजी की आज्ञा पाकर कठौते में भरकर जल ले आया॥3॥
अति आनंद उमगि अनुरागा। चरन सरोज पखारन लागा॥
बरषि सुमन सुर सकल सिहाहीं। एहि सम पुन्यपुंज कोउ नाहीं॥4॥
भावार्थ:-अत्यन्त आनंद और प्रेम में उमंगकर वह भगवान के चरणकमल धोने लगा। सब देवता फूल बरसाकर सिहाने लगे कि इसके समान पुण्य की राशि कोई नहीं है॥4॥
दोहा :
पद पखारि जलु पान करि आपु सहित परिवार।
पितर पारु करि प्रभुहि पुनि मुदित गयउ लेइ पार॥101॥
भावार्थ:-चरणों को धोकर और सारे परिवार सहित स्वयं उस जल (चरणोदक) को पीकर पहले (उस महान पुण्य के द्वारा) अपने पितरों को भवसागर से पार कर फिर आनंदपूर्वक प्रभु श्री रामचन्द्रजी को गंगाजी के पार ले गया॥
चौपाई :
उतरि ठाढ़ भए सुरसरि रेता। सीय रामुगुह लखन समेता॥
केवट उतरि दंडवत कीन्हा। प्रभुहि सकुच एहि नहिं कछु दीन्हा॥1॥
भावार्थ:-निषादराज और लक्ष्मणजी सहित श्री सीताजी और श्री रामचन्द्रजी (नाव से) उतरकर गंगाजी की रेत (बालू) में खड़े हो गए। तब केवट ने उतरकर दण्डवत की। (उसको दण्डवत करते देखकर) प्रभु को संकोच हुआ कि इसको कुछ दिया नहीं॥1॥
पिय हिय की सिय जाननिहारी। मनि मुदरी मन मुदित उतारी॥
कहेउ कृपाल लेहि उतराई। केवट चरन गहे अकुलाई॥2॥
भावार्थ:-पति के हृदय की जानने वाली सीताजी ने आनंद भरे मन से अपनी रत्न जडि़त अँगूठी (अँगुली से) उतारी। कृपालु श्री रामचन्द्रजी ने केवट से कहा, नाव की उतराई लो। केवट ने व्याकुल होकर चरण पकड़ लिए॥2॥
नाथ आजु मैं काह न पावा। मिटे दोष दुख दारिद दावा॥
बहुत काल मैं कीन्हि मजूरी। आजु दीन्ह बिधि बनि भलि भूरी॥3॥
भावार्थ:-(उसने कहा-) हे नाथ! आज मैंने क्या नहीं पाया! मेरे दोष, दुःख और दरिद्रता की आग आज बुझ गई है। मैंने बहुत समय तक मजदूरी की। विधाता ने आज बहुत अच्छी भरपूर मजदूरी दे दी॥3॥
अब कछु नाथ न चाहिअ मोरें। दीन दयाल अनुग्रह तोरें॥
फिरती बार मोहि जो देबा। सो प्रसादु मैं सिर धरि लेबा॥4॥
भावार्थ:-हे नाथ! हे दीनदयाल! आपकी कृपा से अब मुझे कुछ नहीं चाहिए। लौटती बार आप मुझे जो कुछ देंगे, वह प्रसाद मैं सिर चढ़ाकर लूँगा॥4॥
दोहा :
बहुत कीन्ह प्रभु लखन सियँ नहिं कछु केवटु लेइ।
बिदा कीन्ह करुनायतन भगति बिमल बरु देइ॥102॥
भावार्थ:- प्रभु श्री रामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी ने बहुत आग्रह (या यत्न) किया, पर केवट कुछ नहीं लेता। तब करुणा के धाम भगवान श्री रामचन्द्रजी ने निर्मल भक्ति का वरदान देकर उसे विदा किया॥102॥
चौपाई :
तब मज्जनु करि रघुकुलनाथा। पूजि पारथिव नायउ माथा॥
सियँ सुरसरिहि कहेउ कर जोरी। मातु मनोरथ पुरउबि मोरी॥1॥
भावार्थ:-फिर रघुकुल के स्वामी श्री रामचन्द्रजी ने स्नान करके पार्थिव पूजा की और शिवजी को सिर नवाया। सीताजी ने हाथ जोड़कर गंगाजी से कहा- हे माता! मेरा मनोरथ पूरा कीजिएगा॥1॥
पति देवर सँग कुसल बहोरी। आइ करौं जेहिं पूजा तोरी॥
सुनि सिय बिनय प्रेम रस सानी। भइ तब बिमल बारि बर बानी॥2॥
भावार्थ:- जिससे मैं पति और देवर के साथ कुशलतापूर्वक लौट आकर तुम्हारी पूजा करूँ। सीताजी की प्रेम रस में सनी हुई विनती सुनकर तब गंगाजी के निर्मल जल में से श्रेष्ठ वाणी हुई-॥2॥
सुनु रघुबीर प्रिया बैदेही। तब प्रभाउ जग बिदित न केही॥
लोकप होहिं बिलोकत तोरें। तोहि सेवहिं सब सिधि कर जोरें॥3॥
भावार्थ:-हे रघुवीर की प्रियतमा जानकी! सुनो, तुम्हारा प्रभाव जगत में किसे नहीं मालूम है? तुम्हारे (कृपा दृष्टि से) देखते ही लोग लोकपाल हो जाते हैं। सब सिद्धियाँ हाथ जोड़े तुम्हारी सेवा करती हैं॥3॥
तुम्ह जो हमहि बड़ि बिनय सुनाई। कृपा कीन्हि मोहि दीन्हि बड़ाई॥
तदपि देबि मैं देबि असीसा। सफल होन हित निज बागीसा॥4॥
भावार्थ:- तुमने जो मुझको बड़ी विनती सुनाई, यह तो मुझ पर कृपा की और मुझे बड़ाई दी है। तो भी हे देवी! मैं अपनी वाणी सफल होने के लिए तुम्हें आशीर्वाद दूँगी॥4॥
दोहा :
प्राननाथ देवर सहित कुसल कोसला आइ।
पूजिहि सब मनकामना सुजसु रहिहि जग छाइ॥103॥
भावार्थ:- तुम अपने प्राणनाथ और देवर सहित कुशलपूर्वक अयोध्या लौटोगी। तुम्हारी सारी मनःकामनाएँ पूरी होंगी और तुम्हारा सुंदर यश जगतभर में छा जाएगा॥103॥
चौपाई :
गंग बचन सुनि मंगल मूला। मुदित सीय सुरसरि अनुकूला॥
तब प्रभु गुहहि कहेउ घर जाहू। सुनत सूख मुखु भा उर दाहू॥1॥
भावार्थ:- मंगल के मूल गंगाजी के वचन सुनकर और देवनदी को अनुकूल देखकर सीताजी आनंदित हुईं। तब प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने निषादराज गुह से कहा कि भैया! अब तुम घर जाओ! यह सुनते ही उसका मुँह सूख गया और हृदय में दाह उत्पन्न हो गया॥1॥
दीन बचन गुह कह कर जोरी। बिनय सुनहु रघुकुलमनि मोरी॥
नाथ साथ रहि पंथु देखाई। करि दिन चारि चरन सेवकाई॥2॥
भावार्थ:- गुह हाथ जोड़कर दीन वचन बोला- हे रघुकुल शिरोमणि! मेरी विनती सुनिए। मैं नाथ (आप) के साथ रहकर, रास्ता दिखाकर, चार (कुछ) दिन चरणों की सेवा करके-॥2॥
जेहिं बन जाइ रहब रघुराई। परनकुटी मैं करबि सुहाई॥
तब मोहि कहँ जसि देब रजाई। सोइ करिहउँ रघुबीर दोहाई॥3॥
भावार्थ:- हे रघुराज! जिस वन में आप जाकर रहेंगे, वहाँ मैं सुंदर पर्णकुटी (पत्तों की कुटिया) बना दूँगा। तब मुझे आप जैसी आज्ञा देंगे, मुझे रघुवीर (आप) की दुहाई है, मैं वैसा ही करूँगा॥3॥
सहज सनेह राम लखि तासू। संग लीन्ह गुह हृदयँ हुलासू॥
पुनि गुहँ ग्याति बोलि सब लीन्हे। करि परितोषु बिदा तब कीन्हे॥4॥
भावार्थ:- उसके स्वाभाविक प्रेम को देखकर श्री रामचन्द्रजी ने उसको साथ ले लिया, इससे गुह के हृदय में बड़ा आनंद हुआ। फिर गुह (निषादराज) ने अपनी जाति के लोगों को बुला लिया और उनका संतोष कराके तब उनको विदा किया॥4॥
शब्दार्थ (Word Meanings)
मरमु (Marmu): भेद / रहस्य
रज (Raj): धूल
मूरि (Moori): जड़ी-बूटी
पाहन (Pahan): पत्थर
काठ (Kaath): लकड़ी
तरनि (Tarani): नाव
घरनी (Gharni): पत्नी / घरवाली
बाटु (Baatu): रास्ता
परइ (Parai): पड़ना / हो जाना
पखारन (Pakharan): धोना
बैन (Bain): वचन / बातें
बिहसे (Bihase): हँसे / मुस्कुराए
करुनाऐन (Karunaain): करुणा के धाम (राम)
कठवता (Kathvata): लकड़ी का बर्तन / कठौती
देवसरि (Devsari): गंगा जी
बहुविकल्पीय प्रश्न (MCQs)
प्रश्न 1: केवट ने भगवान राम को नाव में बिठाने से पहले क्या शर्त रखी?
(क) वह बहुत धन लेगा
(ख) वह पहले उनके पैर धोएगा
(ग) वह लक्ष्मण को नहीं ले जाएगा
(घ) वह पहले भोजन कराएगा
उत्तर: (ख) वह पहले उनके पैर धोएगा
प्रश्न 2: केवट को किस बात का डर था?
(क) नाव डूबने का
(ख) राम के क्रोध का
(ग) नाव के स्त्री बन जाने का
(घ) नदी के बहाव का
उत्तर: (ग) नाव के स्त्री बन जाने का
प्रश्न 3: 'चरन कमल रज कहुँ सबु कहई' - यहाँ 'रज' का क्या अर्थ है?
(क) राजा
(ख) धल
(ग) रात
(घ) रहस्य
उत्तर: (ख) धूल
प्रश्न 4: केवट के अनुसार उसकी नाव किस वस्तु की बनी थी?
(क) लोहे की
(ख) सोने की
(ग) काठ (लकड़ी) की
(घ) पत्थर की
उत्तर: (ग) काठ (लकड़ी) की
प्रश्न 5: भगवान राम ने केवट की बातें सुनकर किसकी ओर देखा?
(क) आकाश की ओर
(ख) नदी की ओर
(ग) जानकी और लक्ष्मण की ओर
(घ) अयोध्या की ओर
उत्तर: (ग) जानकी और लक्ष्मण की ओर
प्रश्न 6: केवट जल भरने के लिए कौन सा बर्तन लाया?
(क) सोने का कलश
(ख) मिट्टी का घड़ा
(ग) कठवता (लकड़ी का बर्तन)
(घ) चांदी की थाली
उत्तर: (ग) कठवता (लकड़ी का बर्तन)
प्रश्न 7: 'जासु नाम सुमिरत एक बारा। उतरहिं नर भवसिंधु अपारा॥' - इन पंक्तियों में किस विरोधाभास का वर्णन है?
(क) राम तैरना नहीं जानते
(ख) जो संसार को पार लगाते हैं, वे आज नदी पार करने के लिए केवट से प्रार्थना कर रहे हैं
(ग) केवट बहुत शक्तिशाली है
(घ) गंगा नदी बहुत गहरी है
उत्तर: (ख) जो संसार को पार लगाते हैं, वे आज नदी पार करने के लिए केवट से प्रार्थना कर रहे हैं
प्रश्न 8: अहिल्या का उद्धार राम ने कैसे किया था (जिसका संदर्भ केवट ने दिया)?
(क) तीर मारकर
(ख) मंत्र पढ़कर
(ग) चरणों की धूल (स्पर्श) से
(घ) जल छिड़ककर
उत्तर: (ग) चरणों की धूल (स्पर्श) से
प्रश्न 9: यह प्रसंग रामचरितमानस के किस कांड से लिया गया है?
(क) बालकांड
(ख) अयोध्या कांड
(ग) सुंदरकांड
(घ) लंका कांड
उत्तर: (ख) अयोध्या कांड
प्रश्न 10: केवट ने प्रभु के पैर धोने के बाद जल (चरणामृत) का क्या किया?
(क) नदी में फेंक दिया
(ख) स्वयं पिया और परिवार को पिलाया
(ग) सूर्य को अर्घ्य दिया
(घ) जमीन पर गिरा दिया
उत्तर: (ख) स्वयं पिया और परिवार को पिलाया
प्रश्न 11: केवट के अनुसार, भगवान राम के चरण रज (धूल) में कौन-सा विशेष गुण है?
(क) यह नाव को स्वर्ण की बना देती है
(ख) यह पत्थर की शिला को स्त्री बना सकती है
(ग) यह मनुष्यों को तुरंत मोक्ष प्रदान करती है
(घ) यह पानी को अमृत में बदल देती है
सही उत्तर: (ख) यह पत्थर की शिला को स्त्री बना सकती है
(व्याख्या: केवट ने अहिल्या के उद्धार का संदर्भ देते हुए यह डर व्यक्त किया था।)
प्रश्न 12: केवट की नाव किस वस्तु की बनी हुई थी, जिससे उसे डर था कि वह स्त्री बन जाएगी?
(क) लोहा
(ख) काठ (Wood)
(ग) मिट्टी
(घ) चमड़ा
सही उत्तर: (ख) काठ (Wood)
(व्याख्या: नाव लकड़ी की बनी थी, जिसे केवट ने पत्थर से कम कठोर बताया।)
प्रश्न 13: पंक्ति 'कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना' में 'मरमु' शब्द का सबसे उपयुक्त अर्थ क्या है?
(क) दूरी
(ख) रहस्य या भेद
(ग) ममता
(घ) नियम
सही उत्तर: (ख) रहस्य या भेद
(व्याख्या: केवट राम की महिमा और उनके चरणों की शक्ति का रहस्य जानता था।)
प्रश्न 14: भगवान राम ने केवट की अटपटी लेकिन प्रेम भरी बातें सुनकर क्या प्रतिक्रिया दी?
(क) उन्होंने उसे डांटा
(ख) वे हँस पड़े और मुस्कुराए
(ग) वे निराश हो गए
(घ) वे मौन रहे
सही उत्तर: (ख) वे हँस पड़े और मुस्कुराए
(व्याख्या: तुलसीदास जी लिखते हैं 'बिहसे करुनाऐन' (करुणा के धाम हँस पड़े)।)
प्रश्न 15: 'कठवता भरि लेइ आवा' में 'कठवता' किस प्रकार का पात्र (बर्तन) होता है?
(क) सोने का बर्तन
(ख) काँसे का बर्तन
(ग) मिट्टी का घड़ा
(घ) लकड़ी का पात्र (कठौती)
सही उत्तर: (घ) लकड़ी का पात्र (कठौती)
(व्याख्या: 'कठवता' सामान्यतः लकड़ी से बना एक बड़ा घरेलू बर्तन होता है।)
प्रश्न 16: केवट के अनुसार, यदि उसकी नाव स्त्री बन जाती तो उसे कौन-सा बड़ा नुकसान उठाना पड़ता?
(क) उसे नाव का किराया भरना पड़ता
(ख) उसे एक और स्त्री का भार वहन करना पड़ता
(ग) वह भगवान राम का सेवक नहीं बन पाता
(घ) उसे नदी में तैरना पड़ता
सही उत्तर: (ख) उसे एक और स्त्री का भार वहन करना पड़ता
(व्याख्या: उसकी एक पत्नी पहले से थी और नाव के स्त्री बन जाने से 'और घरनी एक होइ जाई' का डर था।)
प्रश्न 17: केवट प्रसंग में किस विरोधाभास (Irony) को उजागर किया गया है?
(क) राम का स्वयं केवट के घर भोजन करना
(ख) जो प्रभु भक्तों को भवसागर से पार करते हैं, वे स्वयं नदी पार करने के लिए याचना कर रहे हैं
(ग) केवट का गरीब होकर भी राम को धन देना
(घ) सीता का नाव में बैठकर भी न हंसना
सही उत्तर: (ख) जो प्रभु भक्तों को भवसागर से पार करते हैं, वे स्वयं नदी पार करने के लिए याचना कर रहे हैं
(व्याख्या: पंक्ति 'उतरहिं नर भवसिंधु अपारा' इसी विरोधाभास को बताती है।)
प्रश्न 18: केवट ने चरणामृत (चरण धोवन जल) पीने के बाद सबसे पहले किसका उद्धार (पारु) किया?
(क) अपने परिवार को
(ख) अपने पितरों (पूर्वजों) को
(ग) अपने मित्रों को
(घ) नाव को
सही उत्तर: (ख) अपने पितरों (पूर्वजों) को
(व्याख्या: 'पितर पारु करि प्रभुहि पुनि' - उसने चरणामृत पीकर अपने पितरों को भवसागर से तार दिया।)
प्रश्न 19: केवट ने भगवान राम को नाव में बिठाने से पहले किस बात की शपथ खाई थी?
(क) जनक की शपथ
(ख) लक्ष्मण की शपथ
(ग) दसरथ जी की शपथ
(घ) गंगा मैया की शपथ
सही उत्तर: (ग) दसरथ जी की शपथ
(व्याख्या: उसने कहा 'दसरथ शपथ सब साची कहौं'।)
प्रश्न 20: केवट द्वारा चरण धोए जाने की घटना पर आकाश से किसने फूल बरसाए?
(क) मुनियों ने
(ख) अयोध्या वासियों ने
(ग) देवताओं ने
(घ) नदी के जल ने
सही उत्तर: (ग) देवताओं ने
(व्याख्या: तुलसीदास जी लिखते हैं 'बरसि सुमन सुर' (देवताओं ने फूल बरसाए)।)
प्रश्न 21: केवट भगवान राम से उतराई (पार करने का शुल्क) के रूप में क्या प्राप्त करना चाहता था?
(क) धन और गहने
(ख) राम की सेवा का अवसर
(ग) अपनी एक नाव
(घ) भवसागर से पार होने का वचन (करुणा की उतराई)
सही उत्तर: (घ) भवसागर से पार होने का वचन (करुणा की उतराई)
(व्याख्या: उसने कहा कि जब वह राम को पार करा देगा, तब राम उसे भवसागर से पार करने की कृपा करें।)
प्रश्न 22: राम ने केवट की अटपटी बातें सुनकर जानकी और लक्ष्मण की ओर क्यों देखा?
(क) वे केवट की मूर्खता पर हँस रहे थे
(ख) वे उन्हें केवट के अद्भुत प्रेम और हठ को दिखा रहे थे
(ग) वे उन्हें अपनी सहायता करने का आदेश दे रहे थे
(घ) वे उन्हें आगे चलने का संकेत दे रहे थे
सही उत्तर: (ख) वे उन्हें केवट के अद्भुत प्रेम और हठ को दिखा रहे थे
(व्याख्या: यह भक्त के अनूठे प्रेम की सराहना थी।)
प्रश्न 23: केवट के अनुसार, भगवान राम की चरण धूल किस प्राचीन ऋषि की पत्नी के उद्धार का कारण बनी थी?
(क) अनुसूया
(ख) मंदोदरी
(ग) अहिल्या
(घ) सीता
सही उत्तर: (ग) अहिल्या
(व्याख्या: अहिल्या गौतम ऋषि की पत्नी थीं, जिनका उद्धार राम के चरण स्पर्श से हुआ था।)
प्रश्न 24: इस प्रसंग में 'तरनिउ मुनि घरनी होइ जाई' में 'तरनि' शब्द का क्या अर्थ है?
(क) तरुणी (युवती)
(ख) तरसना
(ग) नाव (Boat)
(घ) सूर्य
सही उत्तर: (ग) नाव (Boat)
(व्याख्या: यहाँ 'तरनि' का अर्थ नाव है, जिसका स्त्री बन जाने का डर केवट को था।)
प्रश्न 25: केवट के हठ को देखकर राम ने मुस्कुराते हुए क्या कहा?
(क) कि वह दूसरा नाविक ढूंढ़ लेंगे
(ख) कि वह जल्दी नाव ले आए
(ग) तुम वही करो, जिससे तुम्हारी नाव न जाए
(घ) कि उसे उतराई ज़रूर मिलेगी
सही उत्तर: (ग) तुम वही करो, जिससे तुम्हारी नाव न जाए
(व्याख्या: राम ने मुस्कुराकर उसे चरण धोने की अनुमति देते हुए कहा 'सोइ करु जेहिं तव नाव न जाई'।)
दोहावली (तुलसीदास), Summary, Explanation, Word meanings, MCQs, Class 12 Semester 3

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